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जाति-आधारित भेदभाव और समकालीन विडंबनाएं

जाति-आधारित भेदभाव और समकालीन विडंबनाएं

वरिष्ठ पत्रकार मो. ज़ाकिर घुरसेना

भारतीय समाज में जाति व्यवस्था की जड़ें हजारों सालों से फैली हुई हैं। एक ओर जहां सभ्यता, ज्ञान और विज्ञान के क्षेत्र में हम निरंतर प्रगति कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर सामाजिक ताना-बाना अभी भी जाति और वर्ण की दीवारों में उलझा हुआ है। यह स्थिति तब और अधिक विडंबनापूर्ण हो जाती है जब हम जानवरों के प्रति करुणा और संवेदना रखते हैं, परंतु अपने ही समाज के दलित, आदिवासी और श्रमिक वर्गों के प्रति घृणा और भेदभाव का भाव रखते हैं।

भारतीय परिवारों में गाय, कुत्ते, बिल्ली जैसे जानवरों को सम्मानजनक स्थान दिया जाता है। लोग उन्हें घर का सदस्य मानते हैं, उनकी देखभाल करते हैं और उनके साथ भावनात्मक जुड़ाव रखते हैं। लेकिन वही समाज जब निचले तबके की ओर देखता है तो उसकी दृष्टि में घृणा और उपेक्षा होती है। यह विडंबना है कि एक समाज जिसमें हर व्यक्ति समानता का हकदार है, वहां मानवता को किनारे रखकर भेदभाव की नींव पर व्यवहार होता है।

भारतीय समाज में जाति व्यवस्था का आधार वेदों और प्राचीन शास्त्रों में देखा जाता है, जहां समाज को चार वर्णों में विभाजित किया गया था: ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र।इसी तरह भारतीय मुसलमान मुख्यतः तीन जाति समूहों में बंटा हुआ है। इन्हें ‘अशरफ़’, ‘अजलाफ़’ और ‘अरज़ाल’ कहा जाता है। ये जातियों के समूह हैं, जिसके अंदर अलग-अलग जातियां शामिल हैं। हिंदुओं में जैसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण होते हैं, वैसे ही अशरफ़, अजलाफ़ और अरज़ाल को देखा जाता है। जानकारी के मुताबिक अशरफ़ में सैयद, शेख़, पठान, मिर्ज़ा, मुग़ल जैसी जातियां शामिल हैं। मुस्लिम समाज की इन जातियों की तुलना हिंदुओं की उच्च जातियों से की जाती है, जिनमें ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य शामिल हैं। दूसरा वर्ग है- अजलाफ़. इसमें कथित बीच की जातियां शामिल हैं। इनकी एक बड़ी संख्या है, जिनमें ख़ासतौर पर अंसारी, मंसूरी, राइन, क़ुरैशी जैसी कई जातियां शामिल हैं।क़ुरैशी मीट का व्यापार करने वाले और अंसारी मुख्य रूप से कपड़ा बुनाई के पेशे से जुड़े होते हैं। हिंदुओं में उनकी तुलना यादव, कोइरी, कुर्मी जैसी जातियों से की जाती है।तीसरा वर्ग है- अरज़ाल. इसमें हलालख़ोर, हवारी, रज़्ज़ाक जैसी जातियां शामिल हैं। हिंदुओं में मैला ढोने का काम करने वाले लोग मुस्लिम समाज में हलालख़ोर और कपड़ा धोने का काम करने वाले धोबी कहलाते हैं। यह व्यवस्था समय के साथ इतनी गहरी हो गई कि एक व्यक्ति की पहचान, उसका सम्मान और उसकी सामाजिक स्थिति उसकी जाति के आधार पर तय होने लगी। हालांकि मुस्लिम समुदाय में वर्गीकरण नही के बराबर है साथ ही यह भारत के सभी जगहों में व्यापक रूप से देखने को नहीं मिलता, इसके बावजूद विवाह सहित कुछ निजी कार्यों में दिखाई देती है। लेकिन पारम्परिक पर्वों में ऐसी व्यवस्था का कोई स्थान नहीं होता। देखा गया है कि अंग्रेजो के जमाने से निचले तबके के लोगों को हमेशा से ही निम्न स्थान पर रखा गया और उनके साथ गुलामो जैसा व्यवहार किया गया यह कहना उचित नहीं है, भारतीय समाज में क्षेत्र, सम्प्रदाय, वर्ण, जाति का बोलबाला या परिपाटी प्राचीन काल से चला आ रहा है। हालांकि इसके सकारात्मक बदलाव भी देखने को मिलने लगा है।

इस ऊंच-नीच व भेदभाव जैसी ऐतिहासिक अन्याय के खिलाफ समय-समय पर कई आंदोलनों के जरिए समाज सुधारकों ने आवाज उठाई, लेकिन जाति की गहरी जड़ें इतनी मजबूत हैं कि आधुनिक समय में भी यह भेदभाव पूरी तरह से समाप्त नहीं हो पाया है। स्वतंत्रता के बाद संविधान में भले ही दलितों और आदिवासियों के अधिकारों को सुरक्षित करने के लिए प्रावधान किए गए, लेकिन सामाजिक स्तर पर यह बदलाव अभी भी अधूरा है।

आज के समाज में, शिक्षा और आधुनिकता के बावजूद जाति और रंग के आधार पर भेदभाव खुलेआम दिखाई देता है। लोग रिश्ते बनाते समय, रोजगार में अवसर देते समय या किसी से मिलते समय भी उनकी जाति, रंग और वर्ग को प्राथमिकता देते हैं। यह मानसिकता समाज के विकास में सबसे बड़ा रोड़ा है।

रंगभेद और जातिभेद के इस दौर में हम एक ओर तकनीकी और वैज्ञानिक क्षेत्र में आगे बढ़ रहे हैं, वहीं दूसरी ओर सामाजिक स्तर पर पीछे जा रहे हैं। यह स्थिति उन सब सपनों और आदर्शों के खिलाफ है, जिनकी हम इक्कीसवीं सदी में कल्पना करते हैं।

आधुनिक शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति को तर्कशील, वैज्ञानिक और समानता के सिद्धांतों पर आधारित समाज का निर्माण करना था। लेकिन यह शिक्षा तब तक अधूरी है जब तक वह जातिवाद, भेदभाव और पूर्वाग्रह जैसी मानसिकता को समाप्त नहीं करती। भारतीय समाज में, जहां जाति व्यवस्था इतनी गहराई तक फैली हुई है, वहां शिक्षा को लोगों के दृष्टिकोण में बदलाव लाने के लिए काम करना होगा।

यह तर्क भी दिया जा सकता है कि अंग्रेजों ने ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति के तहत जाति व्यवस्था को और अधिक मजबूत किया। उन्होंने भारतीय समाज की इन आंतरिक कमजोरियों का फायदा उठाया और सामाजिक विभाजन को बढ़ावा दिया। लेकिन यह कहना कि केवल अंग्रेज ही इसके लिए जिम्मेदार हैं, हमारी जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ना होगा। जाति- आधारित भेदभाव की जड़ें भारतीय समाज में बहुत पहले से हैं और इसका समाधान केवल बाहरी कारणों पर दोष मढ़ने से नहीं निकलेगा।

समाज में लगातार बढ़ रही तर्कशीलता, विज्ञान और तकनीकी विकास के इस दौर में, हमें यह सोचना चाहिए कि क्या हम सही दिशा में जा रहे हैं? क्या जातिवाद, रंगभेद और वर्गीय भेदभाव जैसे मुद्दे हमें पीछे धकेल रहे हैं? आज का युवा वर्ग तकनीकी क्षेत्र में तो आगे बढ़ रहा है, लेकिन सामाजिक और नैतिक दृष्टिकोण से पीछे रह गया है।

मेरा मानना है कि समाज को सही दिशा में आगे बढ़ाने के लिए जरूरी है कि हम जाति, रंग और धर्म के आधार पर भेदभाव की इस पुरानी मानसिकता से बाहर निकलें। एक ऐसा समाज बनाना चाहिए जहां सभी को समान अवसर और सम्मान मिले। इसके लिए शिक्षा, जागरूकता और सामूहिक प्रयासों की आवश्यकता है। जब तक हम इन पुराने और तुच्छ भेदभावों को समाप्त नहीं करते, तब तक भारतीय समाज के संपूर्ण विकास की कल्पना करना मुश्किल है।

आज हमें आत्मचिंतन करने की जरूरत है कि हम अपने भीतर और समाज में किस प्रकार के बदलाव ला सकते हैं ताकि हम सभी के लिए एक बेहतर, समतावादी और न्यायपूर्ण भविष्य बना सकें।

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